Sunday, July 30, 2017

अपनों का भारत

चलो गढ़ें
अपनों का भारत।
सोच - विचार
बहुत कर डाला
नहीं बना
सपनों का भारत,
सत्तर बरस
हुए यूँ जाया
सिर्फ द्वेष की
मिली तिजारत ;
गुणा-भाग
तक़सीम कर चुके
अब जुड़ने की
लिखें इबारत।
गुजर रहे क्यों
दिन औ रातें
बस आपस की
तक़रारों में,
बुरी खबर से
पटे पड़े हैं
सारे पन्ने
अखबारों में ;
प्रेम न मिलता
ढूंढे से भी,
बांट रहे हैं
लोग हिकारत।
हँसकर गले
न मिलना सीखा
साजिश रचते
दिखें पड़ोसी,
क्यों आरोप
मढ़ें औरों पर
कुछ तो होंगे
हम भी दोषी;
सफर चांद तक
करके लौटे
पर पड़ोस की
चाय नदारद।
- ओमप्रकाश तिवारी
(18 जुलाई, 2017)

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