काश ! हम भी सीख पाते
वक़्त की जादूगरी।
वक़्त की जादूगरी।
तो न रहती जेब खाली
रोज दीवाली रहे,
राह तकती द्वार पर
हर शाम घरवाली रहे ;
रोज दीवाली रहे,
राह तकती द्वार पर
हर शाम घरवाली रहे ;
पर खरी कहने की आदत
छोड़ दूँ कैसे बुरी !
छोड़ दूँ कैसे बुरी !
ना प्रमोशन में अटकते
ना ही इंक्रीमेंट में,
खा रहे होते मलाई
साहबों के टेन्ट में ;
ना ही इंक्रीमेंट में,
खा रहे होते मलाई
साहबों के टेन्ट में ;
किंतु गा पाए न स्तुति
जीभ अपनी बेसुरी।
जीभ अपनी बेसुरी।
बनके बातों के सिकंदर
लोग आगे जा रहे,
हम मदारी के बने बंदर
गुलाटी खा रहे;
लोग आगे जा रहे,
हम मदारी के बने बंदर
गुलाटी खा रहे;
क्या करूँ, झुकने न देती
रीढ़ की नाज़ुक धुरी।
रीढ़ की नाज़ुक धुरी।
- ओमप्रकाश तिवारी
(16 जनवरी, 2017)
(16 जनवरी, 2017)
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