मार सको तो
धनुष उठाओ
अपने मन का
रावण मारो।
रहे पड़ोसी का
घर ऊँचा
तो मन अपना
बैठा जाए,
पैसे चार
हाथ आ जाएं
तो बेमतलब
ऐंठा जाए ;
ये प्रवृत्ति ही
ख़तरनाक है
अस्त्र उठा
इसको संहारो।
कभी न
बेटी जैसी दिखती
अपनी छोड़
परायी बेटी,
अब तो माँ की
पूज्य चरण रज
लेने में
होती है हेठी ;
संभव हो तो
ऐसे दुर्गुण
को सीधे
परलोक सिधारो।
चार सदस्यों
वाला घर है
संभल रहे न
अपने बच्चे,
चार जने हों
सुनने वाले
तो उपदेश
सुनाएं अच्छे ;
परनिंदा के
दुष्ट दैत्य की
नाभी में
अपना शर मारो।
- ओमप्रकाश तिवारी
( 2015 की विजयदशमी पर लिखा गया नवगीत)
धनुष उठाओ
अपने मन का
रावण मारो।
रहे पड़ोसी का
घर ऊँचा
तो मन अपना
बैठा जाए,
पैसे चार
हाथ आ जाएं
तो बेमतलब
ऐंठा जाए ;
ये प्रवृत्ति ही
ख़तरनाक है
अस्त्र उठा
इसको संहारो।
कभी न
बेटी जैसी दिखती
अपनी छोड़
परायी बेटी,
अब तो माँ की
पूज्य चरण रज
लेने में
होती है हेठी ;
संभव हो तो
ऐसे दुर्गुण
को सीधे
परलोक सिधारो।
चार सदस्यों
वाला घर है
संभल रहे न
अपने बच्चे,
चार जने हों
सुनने वाले
तो उपदेश
सुनाएं अच्छे ;
परनिंदा के
दुष्ट दैत्य की
नाभी में
अपना शर मारो।
- ओमप्रकाश तिवारी
( 2015 की विजयदशमी पर लिखा गया नवगीत)