Thursday, October 22, 2015

अपने मन का रावण मारो

मार सको तो
धनुष उठाओ
अपने मन का
रावण मारो।

रहे पड़ोसी का
घर ऊँचा
तो मन अपना
बैठा जाए,
पैसे चार
हाथ आ जाएं
तो बेमतलब
ऐंठा जाए ;

ये प्रवृत्ति ही
ख़तरनाक है
अस्त्र उठा
इसको संहारो।

कभी न
बेटी जैसी दिखती
अपनी छोड़
परायी बेटी,
अब तो माँ की
पूज्य चरण रज
लेने में
होती है हेठी ;

संभव हो तो
ऐसे दुर्गुण
को सीधे
परलोक सिधारो।

चार सदस्यों
वाला घर है
संभल रहे न
अपने बच्चे,
चार जने हों
सुनने वाले
तो उपदेश
सुनाएं अच्छे ;

परनिंदा के
दुष्ट दैत्य की
नाभी में
अपना शर मारो।

- ओमप्रकाश तिवारी
( 2015 की विजयदशमी पर लिखा गया नवगीत) 

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