Friday, June 19, 2015

चाहें बेला फूल


जीवन भर हम
रहे रोपते
केवल वृक्ष बबूल,
प्रत्युत्तर में
तो भी चाहें
सुंदर बेला फूल।

पौ फटने से
रात ढले तक
निजता ही निजता,
सिर्फ स्वचिंतन
में ही जीवन
जाता है छिजता ;

अपने से
बाहर की दुनिया
जाते हैं हम भूल।

सदा अहं को
पाला-पोसा
ना छोड़ा अभिमान,
अपनी सुविधा
के आगे, ना रहा
और कुछ ध्यान ;

प्रतिफल में
एकाकीपन
यूँ चुभता जैसे शूल।

गहन ईर्ष्या
की ज्वाला से
जब-जब धधके मन,
जलें पड़ोसी बाद
सुलगता
पहले निज कण-कण ;

फिर भी
समझ नहीं पाते हम
अपने दुःख का मूल।

- ओमप्रकाश तिवारी

No comments:

Post a Comment