Wednesday, April 1, 2015

मूर्ति फिर खंडित हुई

हो गई फिर
मूर्ति खंडित
आस्था से जो गढ़ी थी।
हम तो पहले से ही
ठगहारों के
मेले में खड़े थे,
स्वर्ग दिखलाने को
जीते जी
स्वयं तुम ही अड़े थे;
बात में भी
चाशनी की
इक परत मोटी चढ़ी थी।
तुम कुम्हारों
की कमी
दुनिया को समझाते रहे,
दूध चन्दन
के कटोरे
में ही गरमाते रहे;
काठ की हाँडी
बताओ
कब - कहाँ पहले चढ़ी थी।
समझते हैं खेल
कुछ जन
छोड़ना बातों का सोशा,
दुःख अपरिमित
किंतु देता
टूटता है जब भरोसा;
किन उमीदों
पर चढ़ाऊँ
जो लता पहले चढ़ी थी।
- ओमप्रकाश तिवारी

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