Tuesday, January 6, 2015

काश ! अंतस तक पहुंचती ......


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काश !
अंतस तक पहुँचती
उष्मा तेरी किरण की।

क्या फ़रक पड़ता
रहो तुम
उत्तरायण-दक्षिणायण,
हाथ हो रोजी
सुबह की,
रात को रोटी नारायण ;

कामना
हमको नहीं है
भीष्म से पावन मरण की।

तुम मकर में जा रहे हो
तो हुआ
उत्सव हमारा,
हम मकड़जालों में उलझे
ढूंढते
अपना किनारा ;

स्वयं सारे
वस्त्र खोकर
चाह रखते आवरण की।

देव तुम जानो
तुम्हारी गति-दिशा
आवागमन,
चाहते हम सिर्फ
अपनी मति मलिनता
का शमन ;

रुक सके तो
रोक दो गति
आचरण के ही क्षरण की।
- ओमप्रकाश तिवारी

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