पर्वत से
नयनों तक
जल है।
मेघ फटे
अब
हृदय फट रहा,
बिछुड़ों
के ही
नाम रट रहा;
पुनर्मिलन को
जिया
विकल है।
मचल उठी
गंगा
की धारा,
छीना
जीवन का
उजियारा;
सब अपने
कर्मों का
फल है ।
नेत्र तीसरा
शिव ने
खोला,
शायद तभी
हिमालय
डोला ;
जो कहलाता
सदा
अचल है ।
( 24 जून, 2013)
No comments:
Post a Comment