Wednesday, April 10, 2013

बाबू जी की एक तर्जनी

बाबू जी की
एक तर्जनी
कितना बड़ा सहारा थी ।

मेले-ठेले में जाना हो
या हो नुक्कड़ का बाजार,
सड़क अमीनाबाद सरीखी
हो जाती थी क्षण में पार;

उंगली पकड़े रहते
जब तक,
अपनी तो पौ बारा थी ।

स्वर-व्यंजन पहचान कराना
या फिर गिनती और पहाड़े,
उंगली कभी रही न पीछे
गरमी पड़ती हो या जाड़े;

चूक पढ़ाई में
होती तो,
उंगली चढ़ता पारा थी ।

कम्प्यूटर का युग ना था वो
बाबू गणक कहां से लाएं,
उंगली पर ही कर लेते थे
दफ्तर की सारी गणनाएं;

उंगली
सिर्फ नहीं थी उंगली,
घर का वही गुजारा थी ।

(11 अप्रैल, 2013)

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