Wednesday, April 24, 2013

कहां जिंदगी वश में

चौदह रुपए वड़ा पाव के
चाय हो गई दस में,
कहां जिंदगी वश में !

राशनकार्ड कई रंगों के
उलझे ताने-बाने,
बैठ शिखर पर तय होते हैं
गुरबत के पैमाने ;

देश दिखे, जैसा दिखलाएं
आकाओं के चश्मे !

अनुदानों की सूची लंबी
हुआ खजाना खाली,
अर्थव्यवस्था के माहिर भी
बजा रहे हैं थाली ;

सौ दिन में सुख देनेवाली
धूल खा रही कस्में !

संसद में लड़ते-भिड़ते सब
पीछे मिले हुए हैं,
होंठ सभी के जनता के
प्रश्नों पर सिले हुए हैं ;

नारा, वोट, चुनाव आदि सब
लोकतंत्र की रस्में !

(25 अप्रैल, 2013)

Wednesday, April 10, 2013

बाबू जी की एक तर्जनी

बाबू जी की
एक तर्जनी
कितना बड़ा सहारा थी ।

मेले-ठेले में जाना हो
या हो नुक्कड़ का बाजार,
सड़क अमीनाबाद सरीखी
हो जाती थी क्षण में पार;

उंगली पकड़े रहते
जब तक,
अपनी तो पौ बारा थी ।

स्वर-व्यंजन पहचान कराना
या फिर गिनती और पहाड़े,
उंगली कभी रही न पीछे
गरमी पड़ती हो या जाड़े;

चूक पढ़ाई में
होती तो,
उंगली चढ़ता पारा थी ।

कम्प्यूटर का युग ना था वो
बाबू गणक कहां से लाएं,
उंगली पर ही कर लेते थे
दफ्तर की सारी गणनाएं;

उंगली
सिर्फ नहीं थी उंगली,
घर का वही गुजारा थी ।

(11 अप्रैल, 2013)

Monday, April 8, 2013

ख़तरनाक हैं दुश्मन से

ख़तरनाक हैं
दुश्मन से, जो
अंदर-अंदर चाल रहे ।

सीमा पर के
तोप - मिसाइल, वाले
दुश्मन भले सही,
खंजर लेकर
वो हाथों में, मिलते हैं
ना गले सही ;

किंतु यहाँ तो
मुँह में मिसरी
लेकिन टेढी चाल रहे ।

हाथ मिलाना
गले लगाना
मीठी-मीठी बात करें,
सत्ता की
चाभी मिल जाए
तो सारे मिल घात करें;

फाड़ो गला
लगाओ नारे
उनकी मोटी खाल रहे ।

एक गया
दूजा आएगा
परिवर्तन की आस नहीं,
यहां कुएं में
भाँग मिली है
किसी को होश-हवास नहीं;

दशा-दिशा
कैसे सुधरेगी
जब उल्लू हर डाल रहे ।

( 09 अप्रैल, 2013)