Friday, November 29, 2013

क्षमा करो सरदार

क्षमा करो सरदार
कहाँ से
लोहा लाएँ हम !

वर्षों पहले
बेच चुके हम
बाबा वाले बैल,
आज किराये
के ट्रैक्टर से
होते हैं सब खेल;

मुठिया पकड़
खेत में घूमे,
किसमें इतना दम !

न बढ़ई की
खट-खट गूँजे
न कुछ गढ़े लुहार,
जाने कब की
जंग खा चुकी
है कुदाल की धार;

भला चलाए
कौन फावड़ा,
कमर गई है जम !

दूध पाउडर का
लाते हैं
नहीं पालते भैंस,
आजी बिन
कंडा न पथता
घर में जलती गैस;

खुरपा-खुरपी
वाला भी अब
काम रह गया कम !

हाथ कबाड़ी
के बेचे सब
खेती के औजार,
अधिया पर
दे खेत शहर में
करते लोग बेगार;

पाले हैं
तो पाले रहिए,
आप प्रगति का भ्रम !

(29 नवंबर, 2013)

नोटः गुजरात में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के निर्माण हेतु देश भर से कृषि औजार इकट्ठा करने की बात हो रही है। इसी संदर्भ को ध्यान में रखते हुए सरदार पटेल से क्षमा याचना सहित इस कविता का उद्भव हुआ है।


Saturday, November 9, 2013

त्राहिमाम्


त्राहिमाम् !प्रभु त्राहिमाम् !!

देखा आज़ादी का अनुभव,
देखा नेताओं का उद्भव,
तब रानी एक अकेली थी,
अब राजा आते हैं नव-नव ;

हम तो जस के तस हैं गुलाम !

कलम बंद कर बैठा अफसर,
ऊँघ रहा है सारा दफ्तार,
गाँधी के दर्शन हो जाएँ,
तो चपरासी ही ताकतवर ;

हाउसफुल नंगों से हमाम !

पति-पत्नी का परिवार बचा,
वह भी तूने क्या खूब रचा,
दोनों मोबाइल से चिपके,
हैं उसपर उँगली रहे नचा ;

इंटरनेट से होती सलाम !


(09 नवंबर, 2013)

अखबारों में समाचार है

अखबारों में समाचार है,
उल्लू बैठा डार-डार है ।

देश दिखाई देता दुखिया,
लूट सके जो वो है सुखिया,
लाचारी में शीश झुकाए,
बैठा दिखे मुल्क का मुखिया ;

चुने हुए राजा-रानी से,
लोकतंत्र ही शर्मसार है ।

एक समय था गुल्ली-डंडा,
खेल बना अब चोखा धंधा,
रहो खेलते मनमानी से,
जब तक गले पड़े न फंदा;

राजनीति के खिलाड़ियों से,
खेल स्वयं ही गया हार है।

विकीलीक्स का नया खुलासा,
सुनकर होती बड़ी निराशा,
चौसर भले बिछी हो अपनी,
पश्चिम फेंक रहा है पासा;

शायद इसीलिए दिखती अब,
लोकतंत्र की मुड़ी धार है।

( 09 नवंबर, 2013)

Tuesday, August 27, 2013

कहानी परियों की

बिटिया
सुनती नहीं
कहानी परियों की ।

गुड़िया से न प्यार
न उसके दूल्हे से,
न कोई अनुराग है
चकिया-चूल्हे से ;
बाद जनम के
कितने सावन बीत गए,
कभी न देखा
उसे झूलते झूले से  ।

करती है
वह बात
उड़नतश्तरियों की ।

पढ़ती है लिखती है
कॉलेज जाती है,
कम्प्यूटर पर
उँगली तेज चलाती है ;
दादी माँ की सभी
हिदायत सुन-सुन कर,
हौले से जा पास
उन्हें समझाती है ।

अर्जी देती
बड़ी-बड़ी
नौकरियों की ।

है उसमें विश्वास
गगन छू लेने का,
खुद होकर मजबूत
बहुत कुछ देने का ;
तूफानों में भी
कश्ती फँस जाए तो,
अपने दम पर
साहिल तक खे लेने का ।

है मोहताज
नहीं बेटी
देहरियों की ।

(28 अगस्त, 2013) 

रुपैया रोता है

डॉलर चढ़ता जाय
रुपैया रोता है।

कई बरस से
हार माँगती घरवाली,
हम टरकाते रहे
गई न कंगाली ;

सोना इकतीस पार
लगाए गोता है ।

चाँदी का रुपया
बाबा ले आते थे,
थोड़ा सा कर खर्च
बचा ले जाते थे ;

आज उसी चांदी का
दिखता टोटा है ।

देखे शेयर दलाल
पेट मोटे वाले,
हैं कौड़ी के तीन
आज लटके ताले ;

बिकने को घर का भी
थाली - लोटा है ।

पगड़ी-लुंगी
जबतक देश संभालेगी,
अर्थव्यवस्था को
दीमक सा चालेगी ;

भली चुप्प जब अपना
सिक्का खोटा है।

( 27 अगस्त, 2013)



Monday, August 26, 2013

सोने की चिड़िया के बच्चे


सोने की चिड़िया के बच्चे ।

संसद से निकला परवाना,
मुफ़्त मिलेगा सबको खाना;
कामकाज की करो न चिंता,
पड़े हाथ न पाँव हिलाना ।

सोचो हम हैं कितने अच्छे ।

गरज नहीं पढ़ने-लिखने की,
गरज नहीं कुछ भी सिखने की;
प्रतियोगी दुनिया में हमको,
गरज नहीं बिल्कुल टिकने की ।

गढ़ें सिर्फ़ बातों के लच्छे ।

दे सकता है जो आश्वासन,
वही करेगा हम पर शासन;
लेकर वोट भले ही हमसे,
करवाए हमको शीर्षासन ।

गुणा-भाग में बिल्कुल कच्चे । 

भरे हुए भंडार सभी हैं,
कागज पर अधिकार सभी हैं ;
किंतु निकम्मों की बस्ती में ,
लगते ये बेकार सभी हैं । 

बार-बार खाते हैं गच्चे । 

(27 अगस्त, 2013) 



Sunday, August 25, 2013

राजा जी की पाँचो उँगली

राजा जी की
पाँचो उँगली
घी में डूबी जायं ।

डूबे नगर खेत उतिराएं
जब से आई बाढ़,
जुम्मन-जुगनू सबकी ख़ातिर
बैरी हुआ असाढ़ ;

उड़नखटोले
पर राजा जी
जलदर्शन को जायं ।

सूखे सारे ताल तलैया
सूखीं नदियां-झील,
सूखे सब आँखों के आँसू
ऐश कर रहीं चील ;

राजा के घर
नदी दूध की
रानी इत्र नहायं ।

सब्जी चढ़ी बाँस के ऊपर
दाल करे हड़ताल,
परजा के चेहरे हैं सूखे
हड्डी उभरे गाल ;

राजकुमारी
वजन घटाने
की औषधियाँ खायं ।

( 24 अगस्त, 2013)


कलावती के गाँव

कलावती के
गाँव पधारे राजा जी ।

धूल उड़ाती आईं
दो दर्जन कारें,
आगे-पीछे
बंदूकों की दीवारें ;
चमक रहा था
चेहरा जैसे संगमरमर,
गूँज रही थीं
गगन फाड़ती जयकारें ;

धन्य हो गया
दुखिया का दरवाजा जी ।

गाड़ी में से उतरी
पानी की टंकी,
तेल-मसाला-आटा
सारी नौटंकी ;
जला कई दिन बाद
कला के घर चूल्हा,
उड़ी गाँव में खुशबू
बढ़िया भोजन की ;

तृप्त हुए वो
करके भोजन ताजा जी ।

अच्छी पिकनिक रही
प्रभावित थी परजा,
कलावती का हुआ
एक दिन का हर्जा ;
सुख-दुख तो सब
आते - जाते रहते हैं,
कौन चुका पाया आखिर
किसका कर्जा ;

अखबारों ने
खूब बजाया बाजा जी ।

(24 अगस्त, 2013)

Wednesday, August 14, 2013

आज पंद्रह अगस्त है

उठो उठो श्रीमान
आज पंद्रह अगस्त है ।

सरसठ की हो गई
आज बूढ़ी आज़ादी,
सोई चद्दर तान
दिखे पूरी आबादी ;

सीमाओं पर लगातार
मिलती शिकस्त है ।

अंदर-बाहर सभी तरफ
ख़तरा ही ख़तरा,
पानी सा हो गया
लहू का कतरा-कतरा

लालकिले वाला वक्ता
भी दिखे पस्त है ।

लूट रहे वो जिन्हें
आपने चुनकर भेजा,
देख देश की दशा
फटा जा रहा कलेजा ;

नौजवान अपनी दुनिया में
हुआ मस्त है ।

भले रुलाए प्याज
खून के हमको आँसू,
लिखे जा रहे उन्नति के
नारे नित धाँसू ;

कहाँ शिकायत करें
हवा भी हुई भ्रष्ट है।

(15 अगस्त, 2013)

Tuesday, August 13, 2013

बदला मेरा गाँव रे


बदले लोग
जमाना बदला
बदला मेरा गाँव रे ।

भाई का
प्रवेश वर्जित है
भाई की ही देहरी में,
पट्टीदारों से
होती है अब
जय राम कचहरी में ;

बंद हो गई
दुआ - पैलगी
भारी छूना पाँव रे ।

नहीं अखाड़ा
कुश्ती - बैठक
ना होती अब दौड़ है,
इक -दूजे की
उन्नति खटके
गिरने की होड़ है ;

रेफ़री थानेदार
दफ़ाओं से
खेलें सब दाँव रे ।

मुंशी जी की
मार अभी तक
बाबूजी को याद है,
वो कहते हैं
उसके कारण
घर उनका आबाद है ;

अब शिक्षक
खुद बचते घूमें
दिखे अधर में नाव रे । 

भरी दुपहरी
अजनबियों की
गुड़ संग बुझती प्यास थी,
आधी रात
बटोही आए
दो रोटी की आस थी ;

सिमट गया घर
रिश्तेदारों
की ख़ातिर न ठाँव रे ।

( 14 अगस्त, 2013) 

खद्दर

सच कहता हूँ
गाँव हमारा
खद्दर ने बरबाद किया ।

असलम के संग
गुल्ली-डंडा
खेल-खेल बचपन बीता,
रामकथा वाले 
नाटक में
रजिया बनती थी सीता;
मंदिर की ईंटें
रऊफ के भट्ठे
से ही थी आईं,
पंडित थे परधान
उन्हीं ने काटा
मस्जिद का फीता ।

गुटबंदी को
खद्दरवालों
ने आकर आबाद किया ।

रोज़े तो
सलीम रखता था
हम करते थे इफ़्तारी,
शीर खूरमा
खिला खिला कर
थकतीं चाची बेचारी ;
उधर पँजीरी
के प्रसाद का
वह भी तो था दीवाना,
थी मशहूर
मुहल्ले भर में
उसकी और मेरी यारी ।

सिवईं में
नीबू निचोड़कर
आज बेमज़ा स्वाद किया ।

हाशिम चाचा
के बेटों से
था अपना भाईचारा,
बप्पा उनसे
अपने सुखदुख
का करते थे बँटवारा ;
शादी का जोड़ा
व चूड़ी
उनके घर से आती थी,
आतिशबाजी
की रंगत भी
जमती थी उनके द्वारा ।

तिल को ताड़
बना कुछ लोगों
ने है खड़ा विवाद किया ।


(13 अगस्त, 2013)

Thursday, August 1, 2013

कौरव कुल

कौन कह रहा
द्वापर में ही
कौरव कुल का नाश हुआ ।

वही पिताश्री
बिन आँखों के
माताश्री
पट्टी बाँधे,
ढो-ढो
पुत्रमोह की थाती
दुखते दोनों
के काँधे ;

उधर न्याय की
आस लगाये
अर्जुन सदा निराश हुआ ।

नकुल और
सहदेव सरीखे
भाई के भी
भाव गिरे,
दुर्योधन जी
राजमहल में
दुस्साशन से
रहें घिरे ;

जिसमें जितने
दुर्गुण ज्यादा
वह राजा का ख़ास हुआ ।

चालें वही
शकुनि की दिखतीं
चौपड़ के
नकली पाशे,
नहीं मयस्सर
चना-चबेना
दूध - मलाई
के झांसे ;

चंडालों की
मजलिस  में जा
सदा युधिष्ठिर दास हुआ ।

भीष्म - द्रोण
सत्ता के साथी
अपने-अपने
कारण हैं,
रक्षाकवच
नीति के सबने
किये बख़ूबी
धारण हैं ;

सच कहने पर
चचा विदुर को
दिखे आज वनवास हुआ ।

(1 अगस्त, 2013)



Friday, July 19, 2013

तो लिखूँ

मन को मेरे
कुछ कुरेदे
तो लिखूँ ।

भूख औरों की
मुझे
अहसास हो,
कष्ट का उनके
मुझे
आभास हो ;

दूसरों का
दर्द बेधे
तो लिखूँ ।

लोग जीते हैं
जहां
अपने लिए,
कोई जो
औरों की ख़ातिर
भी जिए ;

अपने पल दो पल
भी दे दे
तो लिखूँ ।

हार जाना
तो बहुत
आसान है,
परिस्थितियों
पर विजय का
मान है ;

दुख को
उलटे पाँव खेदे
तो लिखूँ ।

(19 जुलाई, 2013)



Monday, June 24, 2013

जल है

पर्वत से
नयनों तक
जल है।

मेघ फटे
अब
हृदय फट रहा,
बिछुड़ों
के ही
नाम रट रहा;

पुनर्मिलन को
जिया
विकल है।

मचल उठी
गंगा
की धारा,
छीना
जीवन का
उजियारा;

सब अपने
कर्मों का
फल है ।

नेत्र तीसरा
शिव ने
खोला,
शायद तभी
हिमालय
डोला ;

जो कहलाता
सदा
अचल है ।

( 24 जून, 2013)

Monday, June 10, 2013

क्या लिखोगे

बिक चुकी है
रोशनाई,
क्या लिखोगे !

रहनुमाओं
की पलक
पर है नजर,
अपने हिस्से
की मलाई
का भी डर ;

खान कोयले की
कहाँ
उजले दिखोगे !

मत गुमाँ पालो
कि हैं
अखबार में,
सोच लो
हम भी
खड़े बाजार में ;

बिक रहे हैं सब
मियाँ तुम
कब बिकोगे !

साथ में
सत्ता के
चलना है जरूरी ;
लो बना
थोड़ी सी
आदर्शों से दूरी ;

बात छोटी सी है
आखिर
कब सिखोगे !

झूठ वालों
का सफर
निद्वंद्व है,
सत्य का
हुक्का
व पानी बंद है;

तुम भला
तूफान में
कब तक टिकोगे !


(10 जून, 2013)

Thursday, June 6, 2013

सूर्य से नजरें मिलाकर

सूर्य से
नजरें मिलाकर
बात करना चाहता हूँ ।

तेज है उसका प्रबल
इस बात का
अहसास है,
तपन में
महसूस होती
जानलेवा त्रास है;

अनुसरण
सूरजमुखी का
फिर भी करना चाहता हूं ।

जानता हूँ
सात घोड़ोंवाला
रथ भी खास है,
राजपथ सा
रौंदता दिखता
वो नित आकाश है ;

भव्यता के
इस बवंडर
से उबरना चाहता हूँ ।

रश्मियों से बनी
वल्गा, हाथ में
निज थाम कर,
हौसले को
स्वयं अपने
कोटि-कोटि प्रणाम कर ;

सारथी बन
साथ उसके
मैं विचरना चाहता हूँ ।

( 06 जून, 2013)

Thursday, May 30, 2013

घूमिए भारत सफारी

घूमिए
भारत सफारी ।

देखिए
महलों में रहते
दीमकों के ढेर हैं,
मूषकों की
बिल में दुबके
बैठे बब्बर शेर हैं;

घास खाकर
सो रही है,
सिंहनी घायल बेचारी ।

गिरगिटों की
हर प्रजाति
भी यहां मौजूद है,
घर बया का
बंदरों ने
किया नेस्तनाबूद है;

बाघ-चीते
कर रहे हैं
सियारों के घर बेगारी ।

दोमुँहे
साँपों की बस्ती
भी यहां आबाद है,
गर्दभों के
राग पर मिलती
हमेशा दाद है;

कोयलों के
सुर पे कौवों की
हुई अब तान भारी ।

लाल फीतों में बंधे
कितने ही
ऐरावत खड़े,
शुतुरमुर्गों
के यहां पर
शीश दिखते हैं गड़े;

लोमड़ी ने
राजरानी
की गजब पोशाक धारी ।


(30 मई, 2013)


Saturday, May 18, 2013

खिड़कियाँ खोलो

खिड़कियाँ खोलो
हवा
ताजी मिलेगी ।

बंद दरवाजे
सभी
दीवार ऊँची,
एक कमरा
बन गया
दुनिया समूची;

इस घुटन में
जिंदगी
कैसे चलेगी ।

है सुखद
अनुभूति
दरिया की रवानी,
रुक गया तो
शीघ्र
सड़ जाता है पानी;

कुमुदिनी
निर्मल
सरोवर में खिलेगी।

मुस्कराओ
तुम
दिखाओ गर्मजोशी,
अजनबी भी
हो अगर
अपना पड़ोसी;

बर्फ तो कुछ
प्रेम
पाकर ही गलेगी ।

(18 मई, 2013)

Wednesday, May 8, 2013

मूल्य बिकते

मूल्य बिकते
कींमतों के
चढ़ रहे बाजार में ।

लोग बौने हैं
मगर
लंबी हुईं परछाइयाँ,
हैं शिखर पर
किंतु चारों ओर
दिखतीं खाइंयाँ ।

कल तलक
आदर्श थे जो,
आज कारागार में ।

है लगी
कीमत सभी की
बोल का भी मोल है,
जो बिके
वो ही खबर है
और सब बेमोल है ।

इश्तेहारों में
दबी, दिखती
खबर अखबार में ।

विश्व के
एकीकरण का
स्वप्न सब पाले हुए,
भाइयों के साथ
भोजन
की रसम टाले हुए ।

जल रहे हैं
चार चूल्हे,
एक ही परिवार में ।

ईद, होली
व दशहरा
या कि दीवाली रहे,
गले मिलना दूर
अब तो
जुबाँ भी खाली रहे ।

उँगलियों से
एक एसएमएस
भेजते त्यौहार में ।

(9 मई, 2013)

Wednesday, April 24, 2013

कहां जिंदगी वश में

चौदह रुपए वड़ा पाव के
चाय हो गई दस में,
कहां जिंदगी वश में !

राशनकार्ड कई रंगों के
उलझे ताने-बाने,
बैठ शिखर पर तय होते हैं
गुरबत के पैमाने ;

देश दिखे, जैसा दिखलाएं
आकाओं के चश्मे !

अनुदानों की सूची लंबी
हुआ खजाना खाली,
अर्थव्यवस्था के माहिर भी
बजा रहे हैं थाली ;

सौ दिन में सुख देनेवाली
धूल खा रही कस्में !

संसद में लड़ते-भिड़ते सब
पीछे मिले हुए हैं,
होंठ सभी के जनता के
प्रश्नों पर सिले हुए हैं ;

नारा, वोट, चुनाव आदि सब
लोकतंत्र की रस्में !

(25 अप्रैल, 2013)

Wednesday, April 10, 2013

बाबू जी की एक तर्जनी

बाबू जी की
एक तर्जनी
कितना बड़ा सहारा थी ।

मेले-ठेले में जाना हो
या हो नुक्कड़ का बाजार,
सड़क अमीनाबाद सरीखी
हो जाती थी क्षण में पार;

उंगली पकड़े रहते
जब तक,
अपनी तो पौ बारा थी ।

स्वर-व्यंजन पहचान कराना
या फिर गिनती और पहाड़े,
उंगली कभी रही न पीछे
गरमी पड़ती हो या जाड़े;

चूक पढ़ाई में
होती तो,
उंगली चढ़ता पारा थी ।

कम्प्यूटर का युग ना था वो
बाबू गणक कहां से लाएं,
उंगली पर ही कर लेते थे
दफ्तर की सारी गणनाएं;

उंगली
सिर्फ नहीं थी उंगली,
घर का वही गुजारा थी ।

(11 अप्रैल, 2013)

Monday, April 8, 2013

ख़तरनाक हैं दुश्मन से

ख़तरनाक हैं
दुश्मन से, जो
अंदर-अंदर चाल रहे ।

सीमा पर के
तोप - मिसाइल, वाले
दुश्मन भले सही,
खंजर लेकर
वो हाथों में, मिलते हैं
ना गले सही ;

किंतु यहाँ तो
मुँह में मिसरी
लेकिन टेढी चाल रहे ।

हाथ मिलाना
गले लगाना
मीठी-मीठी बात करें,
सत्ता की
चाभी मिल जाए
तो सारे मिल घात करें;

फाड़ो गला
लगाओ नारे
उनकी मोटी खाल रहे ।

एक गया
दूजा आएगा
परिवर्तन की आस नहीं,
यहां कुएं में
भाँग मिली है
किसी को होश-हवास नहीं;

दशा-दिशा
कैसे सुधरेगी
जब उल्लू हर डाल रहे ।

( 09 अप्रैल, 2013)

Wednesday, March 20, 2013

होलिके स्वागत तुम्हारा

होलिके
स्वागत तुम्हारा !

हिरण्यकश्यपु
की व्यवस्था
आज भी आबाद है,
हाथ जोड़े
आस में, प्रभु की
खड़ा प्रह्लाद है ;

आजमा लो
बल तुम्हारा !

अब तेरे
स्नान ख़ातिर
हर तरफ ही आग है,
किंतु
तेरी चूनरी में
एक छल का दाग है ;

सोच लो
आगत दुबारा !

आज भी
भाई-भतीजावाद
की भरमार है,
झूठ-सच में
एक चुनना
पर तेरा अधिकार है ;

क्या नहीं
काफी इशारा !

(21 मार्च, 2013)

Monday, March 18, 2013

मत बनो चंदन

मत बनो चंदन
डसेंगे,
रोज विषधर
रात-दिन ।

जिधर देखो
वन ही वन है,
और नित
होता सघन है ;
पुष्प दिखते
खूबसूरत,
किंतु उनमें भी
चुभन है ।

सच कहो
तुम जी सकोगे ?
अरण्य का जीवन
कठिन !

मित्र
शीतलता तुम्हारी,
पड़ेगी
तुमपे ही भारी ;
आएंगी
संबंध बनकर,
कई तलवारें
दुधारी ।

ना बचा पाओगे
अपने लिए,
दिन का
एक छिन ।

लोग तो
आते रहेंगे,
तुमको
भरमाते रहेंगे ;
ले सुवासित
गंध तुमसे,
खुद को
महकाते रहेंगे ।

स्वयं को घिस
सजाओगे,
कब तलक
माथे मलिन !

( 19 मार्च, 2013)




Friday, March 15, 2013

लेकिन पाया माँ का प्यार

चॉकलेट
कम खाई मैंने,
लेकिन पाया
माँ का प्यार ।

घर में रहनेवाली
माँ थीं,
घर ही था
उनका संसार,
हँसते-हँसते
दिनभर खटतीं
लगी गृहस्थी
कभी न भार

गरम पराठे
दूध-मलाई,
फिर भी नखरे
मेरे हजार ।

न आया का
दूध चुराना
न मेरे
हिस्से का खाना,
खुद ही
उबटन-तेल लगाकर
थपकी देकर
मुझे सुलाना

पल भर को भी
बाहर जाऊँ,
तो आने तक
तकतीं द्वार ।

नहीं बोर्डिंग का
सुख पाया
न पड़ोस में
समय बिताया,
क्रेच व बेबी सिटिंग
कहाँ थे
था माँ के
आँचल का साया

जन्मदिवस पर
केक न काटा,
किंतु गुलगुलों
की भरमार ।

( 16 मार्च, 2013)



Saturday, March 2, 2013

मध्य में हूँ, कहाँ जाऊँ

मध्य में हूँ
कहाँ जाऊँ ?

पेट खाली,
पर जुगाली
अब यही दस्तूर है,
दिन के संग-संग
रात पाली
किंतु दिल्ली दूर है ।

क्या निचोड़ूँ
क्या नहाऊँ

माह में बस
एक दिन के लिए
हम सुल्तान हैं,
शेष उन्तिस दिन तड़पते
जेब में
अरमान हैं ।

कैसे खाऊँ
क्या बचाऊँ ?

कंपनी के सेठ जी
हरदम लगे
नाराज हैं,
और घर पे
कामवाली बाइयों के
नाज हैं ।

किस तरह
सबको मनाऊँ ?

कर्ज लेकर
फ्लैट-बंगला, कर्ज से ही
कार है,
जो बचे वो
कर समझकर
काटती सरकार है ।

किस तरह
सपने सजाऊँ ?

( दो मार्च, 2013 - बजट के तीसरे दिन मध्य वर्ग की दशा का अनुभव करते हुए ) 

Friday, March 1, 2013

काश कफन में होती जेब

काश
कफन में होती
जेब !

मुश्किल से बनता है पैसा
करना पड़ता ऐसा-वैसा ,
मरता है जमीर घुटघुटकर
लगता लांछन कैसा-कैसा ;

इतनी कठिन
कमाई को भी,
देश समझता है
क्यूँ ऐब !

राजनीति बर्रों का छत्ता
यूँ ही न मिल जाती सत्ता,
जेल-बेल का लंबा चक्कर
उड़ता है गाँधी का पत्ता ;

फिर भी
मेरा काम आपको,
लगता है
सौ टका फरेब !

जो आया है उसको जाना
रह जाना है यहीं खजाना,
लिखवा कर लाया हर मानुष
अपने हिस्से का हर दाना ;

सपनों में
आती है फिर भी,
लाल-हरे
नोटों की खेप !

( एक मार्च, 2013)

Wednesday, February 27, 2013

अर्थ

अर्थ,
तुम्हारे
कितने अर्थ !

ताकि खर्च
चले सुनियोजित
बजट
बनाते हैं हर साल
बिना बजट के
घर में भी तो
चद्दर बन जाती
रूमाल

अर्थ जेब में
तो हम राजा
वरना सब कुछ
लगता व्यर्थ !

मिले
माह की
मेहनत पर जो
वेतन है
वह शब्द सटीक
लेने वाला
दान समझता
देने वाला
समझे भीख

इसी अर्थ
की ख़ातिर बाबू
हो जाते हैं
कई अनर्थ !

सुविधाशुल्क
कभी कहलाता
कभी कहा जाता
उत्कोच
भला नाम में
क्या रखा है
अपनी सुविधा
अपनी सोच

स्थायी कब रहा
अर्थ है
ये तो रहता
सदा तदर्थ !

( 28 फरवरी, 2013 - टेलीविजन पर राष्ट्रीय बजट की प्रस्तुति देखते हुए) 

Wednesday, February 20, 2013

मोक्ष-मुक्ति में बात कहाँ वह

मोक्ष-मुक्ति में बात कहाँ वह
जो नश्वर संसार में है

कौशल्या देवकी यशोदा
खेले गोद राम से योद्धा
वंचित रहकर इस ममता से
बना आज तक कौन पुरोधा

देवलोक में बात कहाँ वह
जो इक माँ के प्यार में है

मृग के लिए सिया का अड़ना
रुक्मिणि का राधा से लड़ना
पार्वती का शिव की खातिर
कई-कई जन्मों में पड़ना

उर्वशियों में बात कहाँ वह
जो प्रिय की मनुहार में है

खाना छीन के चना-चबेना
फिर दो लोक मित्र को देना
दुर्योधन के लिए कर्ण का
भाई के वध का व्रत लेना

इंद्रसभा में बात कहां जो
मित्रों से तकरार में है

( 21 फरवरी, 2013 - कुंभ, अयोध्या और काशी की यात्रा से लौटकर)

Monday, January 21, 2013

काहे का वैराग रे

दस प्रपंच में
उलझा है मन
काहे का वैराग रे !

हाथी घोड़े ऊँट सवारी
महँगी-महँगी मोटर गाड़ी
ठाट बाट पेशवा सरीखे
राजा लगते भगवाधारी

सिर्फ गेरुए
वस्त्र पहनना
कहलाता न त्याग रे !

चेले-चापड़ गहमागहमी
परमपूज्य वाली खुशफहमी
गांचा चिलम चढ़ाकर करना
अपने तन से भी बेरहमी

तुझ पे नहीं
सुहाता बिल्कुल
संन्यासी ये दाग  रे !

भस्म-भभूती अनी-अखाड़े
प्रतिद्वंद्वी आपस में सारे
भक्त मंडली क्या सीखेगी
सोचो ठंडे मन से प्यारे

सोई सृष्टि
जगानेवाले
पहले खुद तो जाग रे !

(21 जनवरी, 2013 - पूरी श्रद्धा के साथ कुंभ को समर्पित) 

Saturday, January 19, 2013

राजा नंगा है

राजा जी को 
कौन बताए 
राजा नंगा है ।

आँखों पर मोटी सी पट्टी
मुँह में दही जमा
झूठी जयकारों में उसका
मन भी खूब रमा 

जिस नाले वह
डुबकी मारे 
वो ही गंगा है ।

रुचती हैं राजा के मन को
बस झूठी तारीफें
उसको कोसा करें बला से
आगे की तारीखें

उसके राजकाज में
सच कहना
बस पंगा है 

पीढ़ी दर पीढ़ी उसने है
पाया या दर्जा 
ताका करती है उसका मुँह
पढ़ी-लिखी परजा

वह मुस्काए
मुल्क समझ लो
बिल्कुल चंगा है 

- ओमप्रकाश तिवारी


( 20 जनवरी, 2013 - आदरणीय राहुल गांधी की प्रोन्नति से प्रेरणा पाकर )  

Friday, January 11, 2013

बड़ा आदमी

बेचारा वह
बड़ा आदमी

उठने में सूरज से हारा
फिर भी हैंगओवर का मारा
कई किलोमीटर की जॉगिंग
लेकिन चढ़ा न तन का पारा

पकड़ ट्रेडमिल
खड़ा आदमी

पाले है सत्तर बीमारी
बीपी-शुगर पड़ रहे भारी
हलवा-पूड़ी व षट्व्यंजन
छोड़ खाय उबली तरकारी

जीवन से भी
डरा आदमी

इनकम टैक्स वैट का चक्कर
कस्टम वालों से भी टक्कर
काले को सफेद करने में
रोज चूर हो जाना थक कर

दस पचड़ों में
पड़ा आदमी

बीवी की लंबी फरमाइश
नापसंद बेटी की च्वाइस
जूते पर कब्जा कर बैठे
बेटे से भी जोर-अजमाइश

बस कॉलर का
कड़ा आदमी

(12 जनवरी, 2013)

यूँ ही नहीं राम जा डूबे

यूँ ही नहीं
राम जा डूबे
सरजू जी के घाट !

दिन भर
राजपाट की खिटखिट
जनता के परवाने
मातहतों का
कामचोरापा, फिर
धोबी के ताने

लोग समझते
राजा जी तो
भोग रहे हैं ठाट !

था आसान कहां
त्रेता में भी
तब राज चलाना
शेर और बकरी
को पानी
एक घाट पिलवाना

ऊपर से
भरमाने वाले
कितने चारण-भाट !

हारे-थके
महल में पहुंचे
तो सूना संसार
सीता की
सोने की मूरत
दे सकती न प्यार

ऐसे में
क्षय होना ही था
वह व्यक्तित्व विराट !

(11 जनवरी, 2013)

Sunday, January 6, 2013

मरा नयन का नीर

मरा नयन का नीर
             जिन पर सब
             दारोमदार था
             खुद से ज्यादा
             ऐतबार था
             रक्षा का व्रत
             लिया जिन्होंने
             मेरे आगे
             बार-बार था
खींच रहे वो चीर
             खुद को
             अक्षर ज्ञान नहीं है
             मर्यादा का
             ध्यान नहीं है
             पाँच बरस के बाद
             स्वयं की
             किस्मत का भी
             भान नहीं है
लिखते वो तकदीर
             भूखी है
             आधी आबादी
             उन्नति की
             हो रही मुनादी
             मेहनतकश के
             हाथ कटोरा
             भरे पेटवालों
             की चाँदी
उड़ा रहे वो खीर

( 6 जनवरी, 2012)