Tuesday, December 11, 2012

कुम्हड़ा-लौकी नहीं चढ़ रहे

कुम्हड़ा-लौकी
अब छप्पर पे
नहीं चढ़ रहे गांव में

रोज चढ़ रहीं दारू मैया
गुटका-गांजा-सुरती भैया
चौराहे पर चाय केतली
कभी भांग की ता-ता थैया


प्रगति कर रही
है नव पीढ़ी
बेड़ी बांधे पांव में


चढ़ी बांस पे ताश की गड्डी
भूले खो-खो और कबड्डी
गाय-भैंस को देशनिकाला
दिखती है गालों की हड्डी

पढ़ना-लिखना नकल भरोसे
छेद कर रहे नाव में

खूब चढ़ रही कर्ज-उधारी
चमक रही है साहूकारी
खानापूरी में माहिर हैं
जिन्हें बैंक कहते सरकारी

फिर भी चार्वाक
की दुनिया
दिखती गांव - गिरांव में

चढ़ती जाती हैं दीवारें
अनबन की छीटें-बौछारें
हर घर में दो-चार मुकदमे
भाई ही भाई को मारें

प्रेमचंद के पंच
मगन हैं
अपने-अपने दांव में

(11 दिसंबर, 2012 - नवंबर में हुई अपने गांव की यात्रा की उपज)

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