Thursday, December 27, 2012

दिनकर, वादा करो

दिनकर, वादा करो
सुबह
तुम दोगे अच्छी

रात भयावह गई
बुरे सपनों में डूबी
दिल घबराता रहा
देख हर बात अजूबी

आनेवाली रात
नींद
न टूटे कच्ची

कोर्ट कचहरी पुलिस
गबन अगणित घोटाले
रहे डराते हमें
रात भर साये काले

रवि, ले आना
ढूंढ
कोई तो सूरत सच्ची

चूनर के चिथड़े, चीखें
दहलाने वाली
महिषासुर के आगे
दिखीं कांपती काली

नया सबेरा देख
डरे ना
कोई बच्ची

( 28 दिसंबर, 2012 - नए वर्ष के सूरज से कुछ उम्मीदों के साथ) 

Friday, December 21, 2012

महामहिम जी न्याय चाहिए

महामहिम जी
न्याय चाहिए

लाठी-गोली
पुलिस की टोली
नेताओं की
मीठी बोली
जलतोपों की
तीखी धारें
आँसू गैस
खून की होली

ऐसे जुल्म
जबर्दस्ती का
अब हमको
पर्याय चाहिए

कभी कोख में
मरना पड़ता
कभी खाप को
सुनना पड़ता
महानगर की
सड़कों पर भी
डर-डर के है
चलना पड़ता

घिसे पिटे
पाठों से हटकर
एक नया
अध्याय चाहिए

करके जुल्म
छूटते कामी
मिलती है हमको
बदनामी
लाचारी कानून
दिखाए
लोग निकालें
हममें खामी

बहुत हुई
असहाय व्यवस्था
अब तो कोई
उपाय चाहिए

( 22 दिसंबर, 2012 , दोपहर 1.40 बजे, दिल्ली में विजय चौक पर प्रदर्शन कर रहे बच्चों पर लाठी, पानी की बौछारें और आँसू गैस छोड़े जाने का दृश्य देखते हुए)




Wednesday, December 19, 2012

मुट्ठी बांध - जोर से बोल

मुट्ठी बांध
जोर से बोल,
प्यारे अपनी
किस्मत खोल ।

सत्ता सदा
शक्ति की दासी,
दबा दिए जाते
मृदुभाषी ;

बजा जोर से
अपनी ढोल ।

पढ़े - लिखों का
फीका रंग,
छाप अँगूठा
बने दबंग ;

आगे बढ़ तू
करके झोल ।

दिखे जिधर भी
पलड़ा भारी,
झुकने की
कर ले तैयारी ;

संग हवा के
तू भी डोल ।

करता रह तू
सारे पाप,
मुँह में राम
नाम का जाप;

जब तक खुले
न अपनी पोल ।

(19 जुलाई, 2013)

Tuesday, December 11, 2012

कुम्हड़ा-लौकी नहीं चढ़ रहे

कुम्हड़ा-लौकी
अब छप्पर पे
नहीं चढ़ रहे गांव में

रोज चढ़ रहीं दारू मैया
गुटका-गांजा-सुरती भैया
चौराहे पर चाय केतली
कभी भांग की ता-ता थैया


प्रगति कर रही
है नव पीढ़ी
बेड़ी बांधे पांव में


चढ़ी बांस पे ताश की गड्डी
भूले खो-खो और कबड्डी
गाय-भैंस को देशनिकाला
दिखती है गालों की हड्डी

पढ़ना-लिखना नकल भरोसे
छेद कर रहे नाव में

खूब चढ़ रही कर्ज-उधारी
चमक रही है साहूकारी
खानापूरी में माहिर हैं
जिन्हें बैंक कहते सरकारी

फिर भी चार्वाक
की दुनिया
दिखती गांव - गिरांव में

चढ़ती जाती हैं दीवारें
अनबन की छीटें-बौछारें
हर घर में दो-चार मुकदमे
भाई ही भाई को मारें

प्रेमचंद के पंच
मगन हैं
अपने-अपने दांव में

(11 दिसंबर, 2012 - नवंबर में हुई अपने गांव की यात्रा की उपज)

Tuesday, December 4, 2012

रोटी, कपड़ा और मकान



रोटी, कपड़ा और मकान

नहीं चाहिए वारे - न्यारे
नील गगन के चम-चम तारे
आश्वासन भी शीशमहल के
अपनी थैली में रख प्यारे

ला सकती हैं छोटी चीजें
मेरे चेहरे पर मुस्कान

संसद-सत्ता तुम्हें मुबारक
मोटर-बत्ती के तुम धारक
सिंहासन पर जमे रहो तुम
लोकतंत्र के बन उद्धारक

किंतु हो सके तो गरीब से
मत लो उसका धान–पिसान

पगडण्डी व सड़क तुम्हारी
ऊँची कॉलर कड़क तुम्हारी
रहे सलामत राजा साहेब
दबंगई व हड़क तुम्हारी

फसल चरो तो चरो साथ क्यूं
ले जाते हो तोड़ मचान

समझ रही है जनता सारी
लगी देश को जो बीमारी
अगर रहनुमा न समझे तो
समझाएगी बारी - बारी 

चेत सको तो चेतो वरना
हो जाएगी बंद दुकान 

( 4 दिसंबर, 2012- संसद में एफडीआई पर चल रही रोचक बहस को सुनते हुए )

Saturday, December 1, 2012

गाली देना है अपना अधिकार

लोकतंत्र में
गाली देना
है अपना अधिकार

अपना काम पड़े तो देना
टेबल के नीचे से लेना
भला चलेगी कैसे दुनिया
अगर चले न लेना-देना

फिर भी हमको
भ्रष्टाचारी
दिखती है सरकार

बाट जोहता रहता दफ्तर
कुछ कहने से डरता अफसर
लंच खत्म होते ही कुर्सी
बन जाती है अपना बिस्तर

सहकर्मी
मेरी फाइल का
ढोते रहते भार

पांच बरस तक हरदम रोना
वोटिंग के दिन जमकर सोना
अगर गए भी मत देने तो
जात-पांत के नाम डुबोना

लेकिन हमको
नेता चहिए
बिल्कुल जिम्मेदार

क्रांति कर रहे हैं बिस्तर में
जीते हैं, मरते हैं डर में
भगत सिंह दो-चार चाहिए
लेकिन पड़ोस वाले घर में

तोप हमारी
कंधा तेरा
सपने हों साकार


( एक दिसंबर, 2012)