Saturday, November 10, 2012

घर एक बसा गोल

दिल्ली के दिल में घर
एक बसा
गोल ।

बच्चों से भरा-पुरा
लंबा परिवार,
आपस में झगड़ें सब
मुखिया बेकार ;

लगता है इस घर की
नींव रही
डोल ।

चेहरे चिकने लेकिन
दिखतीं कम मुस्कानें,
फट जातीं आस्तीन
दिन भर ताने-ताने ;

हर कुर्सी के नीचे
अरबों का
झोल ।

वादों में सेवा और
मन में बस है मेवा,
चुननेवाली नगरी
हो जाती है बेवा ;

साजन के आसन का
अरबों में
मोल ।

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