Wednesday, October 31, 2012

अब सावन ऐसे आता है

अब सावन ऐसे आता है ।

जिन चौपालों में होता था
ढोलक की थापों पर आल्हा,
वहीं कुकुरमुत्तों से उगते
नेता नित्य बदलते पाल्हा;

जाने किस विचार में दादुर
गाते-गाते खो जाता है ।

हरे बाँस पर पेंग मारती
इठलाती गोरी हम भूले
कभी-कभी अब किसी ठूँठ पर
दिख जाते टायर के झूले ;

हाथों में मेंहदी रचना अब
रीति पुरानी कहलाता है ।

अलग पड़ी बहनों की गुड़िया
बालक खेल ढूंढते दूजा
नर-नर नाग बने घर-घर में
कौन करे नागों की पूजा ;

घटा देख छिप जाए मयूरी
मोर नपूंसक हो जाता है ।

( 2 अगस्त, 1991 को रचित )

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