बूँद-बूँद को तरसे पंक्षी
बूँद जा गिरे सीप ।
कोस पपीहे किस्मत अपनी
रहती हरदम सोती,
भला किस गरज तुझ तक पहुँचे
बूँद बने जब मोती ;
नहीं यहाँ दो-चार पपीहे
प्यासा सारा द्वीप ।
इंद्रधनुष सजता है साथी
सूखे गगन यहाँ,
एक जून जो भूखा सोए
वो ही मगन यहाँ ;
जिसके आँगन बरसे सावन
उसकी सूखी जीभ ।
मेघ बीच भी नहीं ठिकाना
फिर-फिर वापस आए,
जिसे मायका कहे बूँद और
गर्व करे इतराए ;
कब तक ढोए निज आँखों में
तुझको भला गरीब !
( 24 अगस्त, 1997 को रचित )
बूँद जा गिरे सीप ।
कोस पपीहे किस्मत अपनी
रहती हरदम सोती,
भला किस गरज तुझ तक पहुँचे
बूँद बने जब मोती ;
नहीं यहाँ दो-चार पपीहे
प्यासा सारा द्वीप ।
इंद्रधनुष सजता है साथी
सूखे गगन यहाँ,
एक जून जो भूखा सोए
वो ही मगन यहाँ ;
जिसके आँगन बरसे सावन
उसकी सूखी जीभ ।
मेघ बीच भी नहीं ठिकाना
फिर-फिर वापस आए,
जिसे मायका कहे बूँद और
गर्व करे इतराए ;
कब तक ढोए निज आँखों में
तुझको भला गरीब !
( 24 अगस्त, 1997 को रचित )
No comments:
Post a Comment