Wednesday, October 31, 2012

बूँद जा गिरे सीप

बूँद-बूँद को तरसे पंक्षी
बूँद जा गिरे सीप ।

कोस पपीहे किस्मत अपनी
रहती हरदम सोती,
भला किस गरज तुझ तक पहुँचे
बूँद बने जब मोती ;

नहीं यहाँ दो-चार पपीहे
प्यासा सारा द्वीप ।

इंद्रधनुष सजता है साथी
सूखे गगन यहाँ,
एक जून जो भूखा सोए
वो ही मगन यहाँ ;

जिसके आँगन बरसे सावन
उसकी सूखी जीभ ।

मेघ बीच भी नहीं ठिकाना
फिर-फिर वापस आए,
जिसे मायका कहे बूँद और
गर्व करे इतराए ;

कब तक ढोए निज आँखों में
तुझको भला गरीब !

( 24 अगस्त, 1997 को रचित ) 

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