Wednesday, October 31, 2012

शायद फिर आ गए चुनाव

हुए शुरू सतरंगी दाँव
शायद फिर आ गए चुनाव ।

दीवारों से अब तक
मिटी नहीं जो परतें
लिखी जा रहीं उनपर
नई-नई कुछ शर्तें ;

सागर में कागज की नाव ।

गुट-निर्गुट में उलझी
आपस की बातचीत
उड़ रही बयानों में
कहीं हार - कहीं जीत ;

बन गए बिसात शहर-गाँव ।

परिवर्तन की आशा
में होते परिवर्तन
शाश्वत कुव्यवस्था ही
करती फिर भी नर्तन ;

घावों पर लगे नए घाव  ।

स्वागत गणतंत्र किंतु
लगती किस्मत खोटी
दिन पर दिन छोटी
होती जाए रोटी ;

चढ़े गगन भाजी के भाव ।

(किसी चुनाव की आहट सुनाई देने पर लिखी गई ) 



No comments:

Post a Comment