Wednesday, October 31, 2012

बाँझ हुए बादल

बाँझ हुए बादल !

साँझ सबेरे
घिर घिर आएं
फिर भी मुए
न जल बरसाएं

करे तू काहे छल !

जेठ की तपन से
धरती है प्यासी
कहने को सावन
है छाई उदासी

रहे न दूर्वा दल !

न खेतों में रौनक
न दिखती किसानी
जन-जन विकल हो
कहे पानी - पानी

ठिठक गए सारे हल !

( 22 जुलाई, 1991 को रचित) 

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