बाँझ हुए बादल !
साँझ सबेरे
घिर घिर आएं
फिर भी मुए
न जल बरसाएं
करे तू काहे छल !
जेठ की तपन से
धरती है प्यासी
कहने को सावन
है छाई उदासी
रहे न दूर्वा दल !
न खेतों में रौनक
न दिखती किसानी
जन-जन विकल हो
कहे पानी - पानी
ठिठक गए सारे हल !
( 22 जुलाई, 1991 को रचित)
साँझ सबेरे
घिर घिर आएं
फिर भी मुए
न जल बरसाएं
करे तू काहे छल !
जेठ की तपन से
धरती है प्यासी
कहने को सावन
है छाई उदासी
रहे न दूर्वा दल !
न खेतों में रौनक
न दिखती किसानी
जन-जन विकल हो
कहे पानी - पानी
ठिठक गए सारे हल !
( 22 जुलाई, 1991 को रचित)
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