झिलमिलाते दीप देखो
लग रहे कितने सलोने ।
कार्तिक की प्रात भीगी
दूब जैसे ओस से,
तैल मदिरा पी लहरते
हैं हुए मदहोश से;
आज ये ही बन गए हैं
बाल टोली के खिलौने ।
दीप्ति रवि की हैं चुराए
दिये माटी-धूर के,
देखते तूफान को भी
साहसी ये घूर के;
पंक्ति-पंक्ति उजास बिखरी
दीखते नभ नखत बौने ।
रात है काली अमावस की
सुमेरु सी बनी,
झोपड़ी के द्वार दीपक
लग रहे संजीवनी;
प्रगति युग में भी ये थाती
आस्था की चले ढोने ।
( 18 अक्तूबर, 1990 को दीवाली की रात लखनऊ से फैजाबाद जाते हुए )
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