Wednesday, October 31, 2012

कैसा फागुन, कैसी होली

लाठी पुलिस
रबर की गोली
कैसा फागुन
कैसी होली ।

दिन दोपहरी
में सन्नाटा
शासन की गति
सत्यानाशी
घोड़ों की टापें
बस गूँजें
सड़कों के रंग
हुए पलाशी

उड़े गुलाल कहाँ
निर्दय ने
आँसू गैस
शहर में घोली ।

हवालात में
मैदानों के
सहमी सी
बैठी आजादी
कहना-सुनना
साफ मना है
ध्वनिविस्तारक
करें मुनादी

ढोल-मंजीरा
बंद कबीरा
बस अब
इंकलाब की बोली ।

( 7 मार्च, 1993 को यह कविता एक प्रदर्शन की कवरेज के दौरान हरियाणा पुलिस की लाठी खाने के बाद लिखी गई थी ) 

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