Wednesday, October 31, 2012

तुम्हें मुबारक शहरी गलियाँ

तुम्हें मुबारक शहरी गलियाँ
हमको प्यारा गाँव,
तुम्हें मुबारक कूलर-पंखा
हमें नीम की छाँव ।

कहाँ चमाचम डामर सड़कें
कहाँ डगर की रेह,
सूट-बूट में लकदक बाबू
धूर सनी यह देह ;

तन सिहराती पुरबा-पछुवा
ओस चूमती पांव ।

ऊँचे-ऊँचे भवन-कोठियाँ
ऊँची सभी दुकान,
चखकर देखे हमने बाबू
फीके थे पकवान ;

भली नून संग रूखी रोटी
खलिहानों की छाँव ।

सिमटी-सिमटी लगती दुनिया
किसका क्या है दोष,
कंकरीट के जंगल में जब
गुमसुम मिला पड़ोस ;

रिश्ते भी बाजार हो गए
उठते-गिरते भाव ।

( 10 जून, 1992 को दिल्ली में रची गई )

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