Wednesday, October 31, 2012

रीत गया मधुवन !

रीत गया मधुवन !

भोर पहर ही लरज गई हा
कोमल कुसुम कली,
यौवन का मुख तक ना देखा
लागे उम्र ढली ;

पछुआँ की आँधी में आली
झुलस गया तन-मन ।

अमृत सम रसपूर्ण सरोवर
जल आयात करे,
निज भविष्य पर कमल-कुमुदिनी
तब निःश्वास भरे ;

जाने क्यूं कर मरीचिका पर
फिर फिर जाए मन ।

आओ मिल निर्मूल करें हम
ये छाया काली,
कर दें पुष्पाच्छादित मधुवन
की डाली-डाली ;

तप्त धरनि पर पुनः बहा दें
शीतल मंद पवन ।

( जहां तक मुझे याद आता है। यह मेरा पहला नवगीत है । इसे मैंने 7 जून, 1989 को लिखा था )

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