चमक-दमक में
महानगर के
याद आ रही अपनी माटी।
दरक-दरक कर
बरखा - दर - बरखा
धसकीं घर की दीवारें,
जब शहरों में
संकट छाया
वे दीवारें, रोज पुकारें ;
याद आ रही
बिकी खतौनी
थी जो भाई के संग बाँटी।
लॉक हुआ जब
महानगर, अरु
हाथ लगी नौकरिया बिछड़ी,
नगर निगम
अहसान जताकर
बाँट रहा है सूखी खिचड़ी ;
हाथ-पाँव यदि
वहाँ चलाते
अपनी माटी हमें खिलाती।
भले दिनों में
बहुत भले हैं
नगर सभी को खूब लुभाएँ,
लेकिन यह भी
परम सत्य है
शहरों की अपनी सीमाएं ;
पुनः आसरा
देगी अब तो
टूटी - दरकी माँ की छाती
- ओमप्रकाश तिवारी
(19 मई, 2020)
(मई का तीसरा सप्ताह शुरू होते-होते मुंबई में मेरे कई साथी और जानने वाले अस्पताल पहुँच चुके थे। एक-दो निकट परिचित विद्युत शवदाहगृह की भेंट चढ़ चुके हैं। अब बिल्डिंगों में रहने वाले कई रिश्तेदारों और मित्रों को भी अपने गाँव की याद सताने लगी है। तब फूटीं ये पंक्तियां )